Pages

Friday, October 22, 2010

अगर ये "इंसानियत" है तो "हैवानियत" किसे कहेंगे - Roja Iftaar Dawat In Saudi Arabia

इस्लाम धर्म में बहुत सी ऐसी बातें है जो समाज और इंसानियत के खिलाफ है.. जब कहीं भी ऐसे बिन्दुओं को उठाया जाता है तो अपनी गलती मानने के बजाय कुछ "इस्लाम के ठेकेदार" मारने और काटने दौड़ते है...



नीचे दी गयी तसवीरें "सउदी अरब" के शहर "जेद्दाह" की जहाँ पर "रोजा इफ्तार दावत" (?) का आयोजन किया जा रहा है... अपने आप को समझदार और रईस कहने वाले "जाहिल और गंवार" लोगों की कुछ कारगुजारियां देखे..


(कृपया कमजोर दिल वाले इन तस्वीरों को न देखे)



इन भूखे गिद्दों के लिए "रोजा-इफ्तार" की दावत (?) शुरू होने वाली है..





इन "हैवानों" की नज़र तो देखिये...
 

टूट पड़ने की तैयारी में ये भूखे हैवान...
 



इन "भेडियों" के लिए "गोश्त" पकाया जा रहा है...ज़रा गौर से देखिये कितने "निरीह जानवरों" को मारा गया..
 

और ये भूखे "गिद्ध और कुत्ते"  टूट पड़े...इसमें न जाने कितने "निरीह जानवर" हलाल है..



ये तो "हैवानों" से भी ज्यादा गए-गुजरे निकले.



कौन सा-ला कहता है    "इस्लाम में इंसानियत"       के लिए ज़गह है गौर से देखिये "निरीह जानवरों" के अंग.




क्या इसे ही कहते है "इंसानियत"..?? अगर ये इंसानियत है तो "हैवानियत" क्या है..??
 




क्या यही "इस्लाम और कुरआन की पवित्र" (?) शिक्षाएं...??
 

सिर्फ 15  "हैवानो" के लिए  250  "निरीह जानवरों की बलि दी गयी.. बाकी का खाना(?) "अरब सागर" के हवाले...


- ये तो था "इस्लामिक हैवानों" का एक रूप, दुसरे रूप में देखिये "दुनिया में भूखमरी" की मार -



भूख से बिलखते असली मासूम....



प्रधानमंत्रीजी ये है असली मासूम....




**********************************************************************************


आगे से जब भी आप बचा हुआ खाना फैंके तो पहले ये सोच ले की आप "इंसान" है या "हैवान".........


"मुसलमान" और "इस्लाम" के ऐसे हैवानी रूपों से दुनिया भरी पड़ी है.. जो निरीह जानवरों तक को न छोड़े वो काहे का मज़हब...?????

क्या ऐसा मज़हब कभी अमन-ओ-चैन की सीख दे सकता है...?? शायद नहीं.. कभी नहीं.

Sunday, October 10, 2010

भारतीय मुसलमानों, ज़रा सी "काफिरगिरी" कर लो.. Ayodhya Verdict Neglect by Muslim Leaders

अयोध्या फैसला आने के बाद 24 घंटों के अन्दर "इस्लाम के ठेकेदारों" के पेट में दर्द शुरू हो गया और अभी तक बदस्तूर जारी है. ये "इस्लाम के ठेकेदार" नहीं चाहते है की भारत में शांति बनी रहे और भारत का आम मुसलमान इस देश की प्रगति में भागीदार बन सके. पाकिस्तान में बैठे अपने आकओं के इशारे पर ये "इस्लाम के ठेकेदार" आम भारतीय मुसलमान के ज़ेहन में ज़हर भर रहे है. इनमे से कुछ प्रमुख इस्लाम के ठेकेदार है. "जाकिर नाइक", "इमाम बुखारी (बिमारी)", "सैयेद अहमद गिलानी", "सीमा पार बैठे उनके आका" और कुछ "जयचंद भारतीय प्रगतिशील पत्रकार और लेखक" .

शाह नवाज़ जैसे भारतीय नागरिक ने जब फैसले को अदालत का आदेश माना तो इस्लाम के ठेकेदार "जाकिर नाइक" ने उसे "काफिर" तक कह दिया. मतलब जो इस्लाम में "कट्टरपंथी" नहीं वो "काफिर" है जिनमे से कुछ काफिर है "हमारे प्रेरणास्त्रोत डॉ अब्दुल कलाम", "शाह नवाज़", शिया नेता "कल्वे जव्वाद: आदि...

"नई दुनिया" में एक मुसलमान "सैइद अंसारी", (जो न्यूज़ 24 में एंकर भी है और 24 घंटे लगातार एंकरिंग के लिए जिनका नाम " लिम्का बुक ऑफ़ वर्ल्ड रेकॉर्ड्स" में शामिल हो चूका है) का एक लेख छपा जो "इस्लाम के ठेकेदारों" के मुह पार करार तमाचा है -

प्रस्तुत है "सैयेद अंसारी" का वो लेख - -

"जाहिद शराब पीने दे मस्जिद में बैठकर, या फिर वो जगह बता जहाँ खुदा न हो।"

शराब इस्लाम में हराम है। खुदा की इबादत के लिए किसी चहारदीवारी की जरूरत नहीं है। खुदा तो पूरी कायनात में है। केवल इस्लाम ही नहीं, तमाम मजहबों की आत्मा भी इसी दर्शन के इर्द-गिर्द घूमती है। यह बात उन लोगों को समझनी चाहिए जो खुदा के नाम पर मस्जिद बनाने के लिए लाखों जिंदगियों को गुमराह करने का काम कर रहे हैं। इस्लाम का लबादा ओढ़े इन लोगों का असली मकसद अपने स्वार्थ और लालच की दुकानदारी चमकाना है। अयोध्या का रामजन्म भूमि-बाबरी मस्जिद विवाद भी ऐसे ही लोगों की नफरत की राजनीति चमकाने का नतीजा है। यह विवाद जब तक चलता रहेगा, इनकी दुकानदारी भी तब तक चलती रहेगी।

30 सितंबर को दोपहर साढ़े तीन बजे जब पूरे देश के साथ दुनिया भर के लोग टीवी पर टकटकी लगाए अयोध्या पर फैसले का इंतजार कर रहे थे, ठीक उसी वक्त हिन्दुस्तान का एक आम हिन्दू - मुसलमान डरा-सहमा खुदा से दुआ कर रहा था कि सब कुछ ठीक रहे। इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच के फैसले ने एक आम मुसलमान को तो संतुष्ट कर दिया, लेकिन यही फैसला मजहब की ठेकेदारी करने वाले चंद मुल्ला-मौलवियों को संतुष्ट नहीं कर सका। अब वे सुप्रीम कोर्ट जाने की तैयारी कर रहे हैं और जाएँगे भी। इसके बाद भी अगर इनकी दुकानदारी बंद होती दिखती है तो कोई और रास्ता ढूँढ लेंगे, भले ही वो रास्ता नफरत और समाज को बाँटने का ही क्यों न हो। आखिर इनकी रोजी-रोटी का सवाल जो है और इस रोजी-रोटी को मजहबी जामा पहनाकर मुसलमानों को कैसे गुमराह करना है, ये बखूबी जानते हैं। ये लोग खुदा के घर के नाम पर तमाम जिंदगियाँ तबाह करने पर उतारू हैं।

क्या इन्होंने कभी सोचा है कि खुदा की सबसे प्यारी चीज इंसान के लिए कुछ करें? क्या इन लोगों ने गरीबी के चक्र में फँसे करोड़ों मुसलमानों की जिंदगी की बेहतरी के लिए कोई संवैधानिक तरीके से लड़ाई आज तक लड़ी है? क्या बाबरी मस्जिद बन जाने से एक आम मुसलमान महिला की पथराई आँखों का वो इंतजार खत्म हो जाएगा, जो अपने सिसकते चूल्हे को देखते हुए मजदूरी पर गए पति का इंतजार करती है ताकि वह चूल्हे की आग अपने पति के कदमों की आहट मिलते ही थोड़ी और तेज कर सके? क्या मस्जिद बन जाने के बाद कहीं से कोई फरिश्ता आएगा और गरीबी को अपने साथ उड़ा ले जाएगा? फिर मुसमानों के बच्चे और महिलाएँ शिक्षित होंगी। उनके रुखे-सूखे संसार में खुशहाली आ जाएगी।

सचाई हम सबको पता है, वक्त का तकाजा है चिरनिद्रा को भगाने का और अपनी रूह को जगाने का। कट्टरवाद हर हिन्दुस्तानी मुसलमान में नहीं है। वो रेलवे प्लेटफॉर्म, रेल की बर्थ पर भी नमाज पढ़ता है। वो सड़क पर भी नमाज पढ़ता है, नमाज पढने के लिए उसे मस्जिदों या फिर किसी बाबरी मस्जिद की जरूरत नहीं है क्योंकि वो कितना ही गरीब-अमीर क्यों न हो, वो कितना ही पढ़ा-लिखा या अनपढ़-गँवार क्यों न हो, वो जानता है कि खुदा को केवल उसकी इबादत से मतलब है। वो इबादत उसने कहाँ की, इससे खुदा को कोई फर्क नहीं पड़ता। अल्लाह ने भी आलीशान मस्जिदें बनाने की हिदायत नहीं दी है। औलिया-अल्लाहों ने मस्जिदों और कब्रों को हमेशा कच्ची रखा, लेकिन बादशाहों, शाहंशाहों और मजहबी दुकानदारों ने कच्ची कब्रों को मकबरों में तब्दील कर दिया और मस्जिदों को अज्मतें बख्श दीं। जिस तरह से हमारे देश में सूफियों ने इस्लाम का संदेश दिया, वो संदेश प्यार-मोहब्बत, एकता और भाईचारे का था। इस संदेश से मुसलमानों पर विश्वास किया जाने लगा। मोहब्बत और इबादत हम जानने लगे। यह मोहब्बत आज भी हमारी संस्कृति को महका रही है। आज के मजहबी दुकानदार इन बुजुर्गों की पैरवी क्यों नहीं करते? क्यों जमीन के टुकड़े की जंग लड़ते रहते हैं? इन मौलवियों के कद इतने बुलंद क्यों नहीं होते हैं कि वीराने में भी कोई शाहंशाह चलकर इनके दर तक पहुँचे.

ये मुल्ला-मौलवी अपना किरदार ऐसा बुलंद क्यों नहीं करते कि किसी मस्जिद में जाने से हिन्दू न डरे और मंदिर में मुसलमान। इस मुल्क में मुल्ला-मौलवियों ने कभी यह नहीं सोचा कि मुसलमानों को शिक्षा दी जाए। मुसलमानों के बच्चों के लिए आधुनिक तालीम के अवसर पैदा किए जाएँ। उनके लिए अस्पताल खोले जाएँ। क्यों इन लोगों ने मुसलमानों को सिर्फ मजहबी जुनून की तरफ मोड़ा है। ये मजहब के दुकानदार क्यों कभी भी मुसलमानों के संपूर्ण विकास के लिए आवाज बुलंद नहीं करते हैं। चंदा उगाही सिर्फ मस्जिद के नाम पर ही क्यों करते हैं ये लोग? वक्त आ गया है कि इस्लामी मदरसों से ऐसी आवाज बुलंद हो जिससे इस्लाम के उपदेशों के आधार पर इनसानियत को नई जिंदगी मिले और मुसलमानों को नए-नए रोजगार के अवसर। क्यों ये जिद करते हैं अदालत के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने की? क्यों एक बार फिर ये आम मुसलमान को डराना चाहते हैं? क्या ६१ सालों तक मुसलमानों के दिल में खौफ और डर पैदा करके इनका मन नहीं भरा?

इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच के फैसले के बाद देश के नागरिकों को यह विश्वास हुआ कि अब वे सुरक्षित हैं और अब दंगे नहीं हो सकते। अब उनका कारोबार नहीं उजड़ेगा, अब हर रोज उनके घर में चूल्हा जलेगा। अब उनके बच्चों का भविष्य उज्ज्वल होगा। अदालत के फैसले के बाद देश का हिन्दू - मुसलमान चैन की साँस ले रहा है। उसे फिजां में अमन की खुशबू आ रही है। वह सुकून महसूस कर रहा है लेकिन मजहब के ये दुकानदार बाबरी मस्जिद मामले को जिंदा रखकर अपनी दुकानदारी चलाना चाहते हैं। नहीं चाहते ये मुल्ला-मौलवी कि सुकून में रहे देश का मुसलमान क्यूंकि अगर वो सुकून से रहा तो बंद हो जाएगी बाबरी मस्जिद की दूकान। रूक जायेगा बाबरी मस्जिद के नाम पार करोड़ों रूपये उगाहने का धंधा। इसलिए नहीं चाहते ये लोग की प्यार से रहे देश के "हिन्दू-मुसलमान"। आज देश के "हिन्दू- मुसलमानों" ऐसा माहौल चाहिए जिसकी बुनियाद भाईचारे, अमन और शांति पार टिकी हो, न कि नफ़रत और हिंसा पार टिकी हो। यह आज के हिन्दुस्तान कि पुकार है"
- सैइद अंसारी
=======
अब भारतीय मुसलमानों को सोचना होगा कि वो क्या एक "सच्चे हिन्दुस्तानी" बनकर नहीं रह सकते ..?? उन्हें ये भी सोचना होगा कि वो अपना आदर्श किसे माने "ज़हर फ़ैलाने वाले जाकिर नाईको" को या देश के गर्व "अब्दुल कलामों" को.. ??

Tuesday, October 5, 2010

कमाल है.!!!! बड़े ब्लागरों और पत्रकारों का "सहिष्णुता और भाईचारे" का नकाब इतना जल्दी उतर गया.- Ayodhya judgment Neglect by Bloggers & Journalist.

अयोध्या मुद्दे पर फैसला आने के कुछ दिन पहले से ही हर अखबार और चैनल पर "हिन्दू-मुसलमानों" को सहिष्णुता और धैर्य की घुटी पिलाई जा रही थी और इनका बखूबी साथ दे रहे थे हमारे ब्लॉग जगत के कई जाने माने महारथी; उनमे सब से आगे थे सलीम खान (स्वच्छ सन्देश), शरीफ खान (हक़नमा), तौशिफ (दाबिर न्यूज़), सफत आलम तैमी, छदम इम्पैक्ट (शायद अनवर जमाल) और जयचंद नीरेंद्र नागर (एकला चलो रे), शेष नारायण (माफ़ कीजिये - अवशेष नारायण (विस्फोट) इत्यादि. इनलोगों ने बार-बार अपील की कि अदालत का फैसला चाहे कुछ भी आये, पर हमें इसका सम्मान करना चाहिए,  (शायद इसलिए कि ये सब इस मुगालते में थे कि केंद्र में हमारी सरकार है और फैसला हमारे कि हक में आएगा, और वहां सिर्फ "बाबरी मस्जिद" ही बनेगी).

मुझे बहुत अजीब सा लगा कि जो लोग बात बात पर हिन्दुओं पर तोहमत लगाते है वो लोग इतनी शिद्दत से देश में शांति कि अपील कैसे कर सकते है. खैर मन में एक सुकून था कि चलो इस मुद्दे पर तो ये लोग देश को बंटाना नहीं चाहते है, पर मैं गलत था, फैसला आने के 24 घंटे के अन्दर इन लोगों ने वही राग अलापना शुरू कर दिया जो पाकिस्तान हमेशा कश्मीर पर अलापता आया है. इन लोगों ने फैसले को एक तरफा करार दिया और बड़े बड़े लेख लिख डाले कि "फैसला में हिन्दू जीत गया पर हिन्दुस्तान और कानून हार गया". इस बार इन्होने अपने जज न्यायमूर्ति एस क्यू खान को भी लपेटे में ले लिया.

इन महान पत्रकारों(?) ने अपना दोगला चरित्र अब दिखाना शुरू कर दिया, एक तरफ तो ये "सहिष्णुता" का मुखौटा ओढ़े हुए है, वही दूसरी तरफ हिन्दुओं और न्याय व्यवस्था को पानी पी पी कोस रहे है. सलीम खान का दोगलापन तो मुझे अच्छे से मालूम था कि ये भेड़ का लबादा ओढ़े हुए भेडिया बोल रहा है पर अव-शेष नारायण भी अपने "सेक्युलर शोरूम" पर ताला लगने के डर से घबरा गए और इस फैसले को एक तरफा तक करार दे दिया. नीरेंद्र नागर की भाजपा से जलन इस बात से साफ़-साफ़ झलकती है कि "भाजपा इस फैसले पर खुश नहीं है और भाजपा कि हार हो गयी". मुसलमानों के पक्षधर बनने वाले नीरेंद्र नागर ने शायद अब "फेस रीडिंग पत्रकारिता" की नयी शुरुआत" कर दी है सलीम खान जो कल तक सहिष्णुता का भाषण झाड रह था आज उसने इस फैसले के खिलाफ नयी श्रंखला शुरू कर दी,

तो क्या ये "सहिष्णुता और धैर्य" का पालन करने का आदेश सिर्फ और सिर्फ हिन्दुओं के लिए ही था ??

कांग्रेस के मुखपत्र  और  बिकाऊ पत्रकारिता और पेड न्यूज़ में नए आयाम स्थापित कर चुके "नवभारत टाइम्स" ने एक लेख में लिखा "मुसलमानों के पक्ष में फैसला आने से कट्टरपंथी हिन्दू और भगवा ब्रिगेड द्वारा हिंसा फैलाये जाने की पूरी-पूरी सम्भावना है"  मैं तो आज तक यही सुनाता आया था की हिन्दू सहिष्णु होते है और मुसलमान कट्टरपंथी होते है फिर ये नवभारत टाइम्स हिन्दुओं को किस बिनाह पर कट्टरपंथी और असहिष्णु घोषित करने में लगा है ये आप अच्छी तरह से समझ सकते है.



नभाटा की वो खबर जिसमे हिन्दुओं को कट्टरपंथी बताया है

अब कुछ सवाल -

जगजाहिर है की अयोध्या भगवान् श्री राम की जन्मभूमि है और वहां पर मंदिर था, ये बात न्यायलय मान चूका है, वहां जो 3 न्यायमूर्ती बैठे थे वो कानून के ज्ञाता थे, उन्होंने सुन्नी वक्फ बोर्ड की इस दलील को ख़ारिज कर दिया की वहां सिर्फ बाबरी मस्जिद ही थी और वो पूरी ज़मीन बाबरी मस्जिद को दे दी जाए. फिर भी माननीय जजों ने "भारत के सांप्रदायिक सदभाव" को तरजीह देते हुए १/३ हिस्सा मुसलमानों के "दान" में दिया फिर भी हिन्दू सब कुछ जानते हुए भी कुछ नहीं बोला, क्या ये हिन्दुओं के सहिष्णुता और धैर्य का प्रमाण नहीं है..??


जिस तरह से "हिन्दुओं" ने सहिष्णुता का परिचय देते हुए अपने विधाता श्री राम की ज़मीन का हिस्सा देना कबूल कर लिया, क्या कोई मुसलमान "काबा, मक्का और मदीना" में एक इंच भी ज़मीन कोई मंदिर बनाने के लिए दे सकता है..??

जिस तरह से हिन्दु अपनी जीत पर सिर्फ "सौहार्द और भाईचारे" के लिए अपनी ख़ुशी मनाने की बजाय शांति से अपने घर में रहे, क्या ये फैसला मुसलमानों के पक्ष में आता तो क्या वो मुसलमान जो "पाकिस्तान की जीत पर जश्न मानते हुए पूरे शहर में पटाखे फोड़ते है" हिन्दुओं की भावनाओ का सम्मान करते...??


तो फिर किस बिनाह पर हिन्दुओं को "असहिष्णु और कट्टरपंथी" कहा जा रहा है..???

फिर क्यों ये अपने आप को पत्रकार समझने वाले ब्लॉगर गिरगिट की तरह रंग बदल रहे है..???
Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...